प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने नामांकन भरने के दौरान एक भावुक बयान दिया था ‘न तो किसी ने मुझे भेजा है और न खुद आया हूं। मुझे मां गंगा ने बुलाया है।’ अब प्रधानमंत्री बनने के बाद सारा देश देख रहा है कि मोदी कैसे कलयुग के भागीरथ बनकर गंगा को नया जीवन देंगे। मोदी ने गंगा सफाई के मिशन को पूरा करने के लिए गंगा पुनर्जीवन नाम से एक नया मंत्रालय बनाया जिसकी जिम्मेदारी उमा भारती को दी गयी है। उमा भारती ने भी मोदी की बात को आगे बढ़ाते हुए गंगा की सफाई का दायित्व मिलने को अपने जीवन का सबसे सार्थक दिन बताते हुए कहा कि राजा भागीरथ के बाद नरेंद्र मोदी अब गंगा के उद्धारक की भूमिका निभाएंगे। लेकिन हम सब गोमुख से लेकर गंगा सागर तक गंगा की दुर्दशा से भलीभांति अवगत हैं ऐसे में मोदी कैसे करेंगे गंगा का उद्धार?
पिछले साल केदारनाथ में आई प्रलय के दौरान 55 किलोमीटर की पैदल यात्रा और कुछ साल पहले हरिद्वार से गोमुख तक गंगा की हालत का जायजा लेने के बाद मैं अपने अनुभव के आधार पर प्रधानमंत्री मोदी और उमा भारती का ध्यान गंगा को पुनर्जीवित करने की जमीनी सच्चाई की ओर दिलाना चाहता हूँ।
कुछ साल पहले यूपीए सरकार ने गंगा एक्शन प्लान की विफलता के बाद गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गंगा की सफाई के लिए मिशन क्लीन गंगा शुरू करने का फैसला किया था। इस मिशन के लिए 15 हजार करोड़ रूपये का बजट रखा गया। लेकिन यक्ष प्रश्न था कि पहले गंगा एक्शन प्लान पर जिस तरह से एक हजार करोड़ रूपये पानी की तरह बहा दिये गये तो अब क्या गारंटी है कि इस मिशन से गंगा का उद्धार हो पायेगा और ऐसा ही हुआ। हिमालय की गोद में देवभूमि गोमुख से निकलकर देश के कई राज्यों को भिगोती गंगा बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की जीवनरेखा खतरे में है। शहरों और कारखानों का पानी गंगा के अमृत जल को विष बना रहा है। एक सर्वे के मुताबिक ऋषिकेश में प्रति सौ मिलीमीटर पानी में बैक्टीरिया काउंट 23 पाया गया। जबकि हरिद्वार में ये आंकड़ा 1600, इलाहाबाद में 17 हजार और पटना में 50 हजार पहंुच जाता है। कई शहरों में गंगा का पानी पीने और नहाने लायक भी नहीं रह गया है। पिछले 30 सालों में गंगा की सफाई के नाम पर लाखों करोड़ों बहा दिये गये लेकिन गंगा मैली ही रह गई।
कुछ समय पहले मैंने सेना की एक टुकड़ी के साथ गोमुख तक गंगा की हालत का जायजा लिया। गंगोत्री से गोमुख की दूरी 18 किलोमीटर है लेकिन ये अट्ठारह किलोमीटर मामूली नहीं। रास्ते में टूटते पहाड़ और ग्लेश्यिर पर कम होती बर्फ साफ तौर पर देखी जा सकती थी जो आने वाले खतरे की तरफ इशारा कर रही थी। भागीरथी के साथ लगे पहाड़ लगातार टूटकर गिर रहे थे। रास्तेभर देसी-विदेशी पर्यटक भी गोमुख की तरफ बढ़ते नजर आए। अब एक ऐसी सच्चाई जो हमें बरबस यहां तक खींच लाई। यहां मां गंगा की गोद किस तरह कूड़े और गंदगी से भरी प ड़ी है। खतरे की बात ये है कि ये कूडा बायोडिग्रेडबल भी नहीं। इस कचरे में पॉलीथिन और प्लास्टिक के दूसरे सामान ज्यादा हैं जो पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक हैं। ऐसा नहीं है कि प्रशासन को इसकी जानकारी नहीं लेकिन वो भी चेतावनी और आग्रह वाले कुछ साइन बोर्ड लगाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ले रहा है।
कई साल से बेमौसम बर्फबारी और मौसम का हर वक्त बदलता मिजाज बढ़ते प्रदूषण का ही नतीजा है। ग्लेशियर के तेजी से टूटने की वजह से भागीरथी पूरी तरह बेकाबू हो चली है। गंगोत्री ग्लेशियर, भागीरथी पर्वत, शिव पर्वत और रक्तवर्णा पर्वत ये सभी भागीरथी के स्रोत हैं। लेकिन इन पर भी खतरा साफ दिख रहा था। इनका वजूद पूरी तरह तबाही की तरफ बढ़ रहा है। जमीन धसने की घटनायें यहां आम दिनों की बात हो चली है। जहां हर वक्त बर्फ की चादरें चट्टानों से ज्यादा मजबूत होती थीं वहां अब हर जगह दरारें दूर से ही देखी जा सकती हैं। ये दरारें एक दिन या एक पल की देन नहीं हैं और ये कोई मामूली बात भी नहीं है बल्कि ये पूरी दुनिया के लिये खतरे का सिग्नल है। जी हां ग्लेशियर लगातार पिघलकर अपनी जगह से हटते जा रहे हैं। जहां आज ग्लेशियर का मुहाना है साल भर बाद वो वहां नहीं होगा। बर्फ की चट्टानों में ये दरारें भी हर रोज बढ़ती जा रही हैं। गंगा की खराब हालत हमारी ही
लापरवाहियों की देन हैं। विकास के साथ कुदरत का तालमेल टूटा और लालच का राक्षस विकराल होता चला गया। हकीकत ये भी है कि विकास के नाम पर जो बड़े-बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट इस वक्त चल रहे हैं वही पर्यावरण के लिये तबाही की वजह बन रहे हैं। बड़ी बड़ी मशीनें पहाड़ों का सीना चीर कर आगे बढ़ी और इनका वजूद संकट में आने लगा। इनकी वजह से हिल रही है सदियों से खड़े पहाडों की बुनियादें। यहां आसपास के पूरे इलाके में भागीरथी और अलकनंदा समेत तमाम छोड़ी बड़ी नदियों पर सैकडों हाइड्रो प्रोजेक्ट चल रहे हैं जो पूरे हिमालयी पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं।
सब जानते हैं कि नदियों का खोदा जाना पर्यावरण की दृष्टि से विनाशकारी है। नदियों में जमीन की सतह से ऊपर जितना पानी बहता है, उससे अधिक सतह से नीचे बहता है। खासकर पहाड़ से नीचे गिर कर भाबर इलाके में नदियों का पानी एकदम नीचे चला जाता है और फिर तराई में वह ऊपर आ जाता है। इसीलिये आज से पचास-साठ साल पहले तराई में दस फीट खोदने पर ही पानी निकल आता था, जबकि भाबर में कुएँ खोदना कभी भी संभव नहीं रहा। आने वाले समय में जल संकट से बचने के लिए हमें गंगा और गोमुख की सुध लेनी होगी। अब हिमालय में हिमपात कम हो गया है। पौड़ी समेत उत्तराखंड के कई हिस्सों में अब बर्फ नहीं पड़ती। मसूरी में कब बर्फ पड़ती और कब गल जाती है पता ही नहीं चलता। इस समय केवल उत्तराखंड में पांच सौ से अधिक
राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। इस समय उत्तराखंड की कोई भी छोटी या बड़ी नदी ऐसी नहीं है जिस पर कोई परियोजना न चल रही हो। जिसका सीधा असर गंगा के अस्तित्व पर पड़ रहा है। जिस तरह शरीर से अगर जरुरत से ज्यादा खून निकाल लिया जाय तो आदमी स्वस्थ नहीं रह सकता वही हाल आज गंगा का है। आज गंगा में पानी कम गंदगी ज्यादा हो गयी है।
ये भी सच है कि आज साबरमती नदी गुजरात की शान बन गई है। इससे अहमदाबाद में खूबसूरती तो बढ़ी ही है साथ ही बारहों महीने पानी से लबालब होने के कारण शहर का जलस्तर भी ऊंचा हो गया है। एक राज्य के रूप में सीमित संसाधनों के बल पर मोदी ने मुख्यमंत्री के रूप में ऐसी नदी का कायापलट किया जो अपना वास्तविक स्वरूप खो चुकी थी। जाहिर है कि गंगा की सफाई का काम भी कुछ इसी तरह करना होगा। हां इसका दायरा जरूर विशाल होगा। लेकिन बात नीयत और जज्बे की है। करोड़ों देशवासियों की आस्था से जुड़ी मां गंगा के उद्धार के लिए ठोस योजना के साथ कार्य को अमली जामा पहनाना होगा। अब समय आ गया है कि मोदी सरकार गंगा को बचाने के लिए दूरगामी और ठोस नीति बनाये। आज पूरा देश ये उम्मीद कर रहा है कि जिस मोक्षदायिनी गंगा को हम सबसे पवित्र मानते हैं जिसे भारतीय जनमानस में मां का दर्जा हासिल है उसे नया जीवन मिले और तब सही मायनों में हर-हर गंगे के उद्गोष के साथ देश में हर-हर मोदी का नारा गूंजेगा।
Top News
Latest News