नोयडा में मेरे घर के बाहर पेड़, फूलों से लद गए हैं। नीम की नई कोपलें फूट गई हैं। कचनार और मौलश्री की कली चटक रही है। बेला रात में वैसे ही खिल रही है। जैसे शरद में पारिजात। पीपल, तमाल और पलाश में नए चिकने पत्ते आ गए हैं। टेसू के रंग वातावरण में छा गए हैं। और चित्त में वय: संधि जैसी मस्ती जगने लगी है। बसंत में वन हरे होते हैं, और मन भी। यह मौसम कुटिल, खल कामी है। चुपके से दबे पांव आता है। मन को भरमाता है।
वर्षा चिल्लाती, दहाड़ती, अंधेरा फैलाती आती है। ग्रीष्म और शीत भी आते ही हाहाकार मचाते हैं। पर इस आपाधापी शोर-शराबे के युग में बसंत चुपके से आता है। वह बाहर तो दिखता ही है, भीतर भी दिखता है। पतझड़ के बाद बसंत आता है। यह उम्मीद जीवन को नया अर्थ देती है। कवि आलोक ने कहा है- चहक रहे हैं चमन में पंछी, दरख्त अंगड़ाई ले रहे हैं। बदल रहा है दुखों का मौसम, बसंत पतझर से झांकता है। कालिदास भी हमें ‘ऋतुसंहार’ में समझा चुके हैं- ऋतुओं का रिश्ता आनंद से है। और प्रकृति अपने आनंद को प्रकट करने के लिए ही ऋतुओं के रूप में उपस्थित होती है।
हमारे ऋतुचक्र में शरद और बसंत यही दो उत्सवप्रिय ऋतुऐं हैं। बसंत में चुहल है, राग है, रंग है, मस्ती है। शरद में गाम्भीर्य है। परिपक्वता है। बसंत अल्हड़ है। काम बसंत में ही भस्म हुआ था। तब से वह अनंग तो हुआ पर बसंत के दौरान ही सबसे ज्यादा सक्रिय रहता है। पहले बसंत पंचमी को बसंत के आने की आहट होती थी। अब ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से यह थोड़ा आगे खिसक गया है। बसंत की चैत्र प्रतिपदा को ही हमारे पुरखे ‘मदनोत्सव’ मनाते थे। इस उत्सव में काम की पूजा होती है। जबकि शरद में राम की पूजा होती है। बसंत बेपर्दा है। सबके लिए खुला है। लूट सके तो लूट। कवि पद्माकर कहते हैं- “कूलन में, केलि में, कछारन में, कुंजन में, क्यारिन में, कलिन में कलीन किलकंत है। बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में, बनन में, बागन में, बगरयो बसंत है।”
बसंत में उष्मा है, तरंग है। उद्दीपन है। संकोच नहीं है। तभी तो फागुन में बाबा भी देवर लगते हैं। बसंत काम का पुत्र है, सखा भी। इसे ऋतुओं का राजा मानते हैं। इसलिए गीता में कृष्ण भी कहते हैं- 'ऋतूनां कुसुमाकर' अर्थात ऋतुओं में मैं बसंत हूं। बसंत की ऋतु संधि मन की सभी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर रहती है। इस शुष्क मौसम में काम का ज्वर बढ़ता है। विरह की वेदना बलवती होती है। तरूणाई का उन्माद प्रखर होता है। वय: संधि का दर्द कवियों के यहां इसी मौसम में फूटता है। नक्षत्र विज्ञान के मुताबिक भी ‘उत्तरायण’ में चंद्रमा बलवान होता है।
यौवन हमारे जीवन का बसंत है। और बसंत सृष्टि का यौवन। तेजी से आधुनिक होता हमारा समाज बसंत से अपने गर्भनाल रिश्ते को भूल इसके ‘वेलेन्टाइनीकरण’ पर लगा है। अब बसंत उनके लिए फिल्मी गीतों ‘रितु बसंत अपनो कंत गोरी गरवा लगाएं’ के जरिए ही आता है। मौसम के अलावा बसंत का कोई अहसास अब बचा नहीं है। बसंत प्रेम का उत्सव है। पश्चिम की तरह हमारे यहां भी प्रेम का बाज़ार बढ़ गया है। इस मौसम में आने वाले वेलेन्टाइन गिफ्ट का बाज़ार कोई 50 हजार करोड़ रुपए का है। जो प्यार के देवताओं को अर्पित होता है। अमीर खुसरो के बाद बसंत उत्सव मनाने का रिवाज सूफी परम्परा में भी मिलता है। बरसात के बाद फिल्मों में सबसे ज्यादा गीत बसंत पर ही गाए गए हैं। शास्त्रीय संगीत में तो एक अलग राग ही है बसंत। लोक में चैती, होरी, धमार, घाटो, रसिया, जोगीरा जैसे रस से लबालब गायन इसी ऋतु की देन है।
संस्कृत के सभी कवियों के यहां किसी न किसी बहाने बसंत मौजूद है। इन कवियों के मुताबिक मौसम का गुनगुना होना। फूलों का खिलना। पौधों का हरा भरा होना। बर्फ का पिघलना। शाम सुहानी होना। माहौल में मतवाली मस्ती। प्रेम का उन्माद में तबदील होना यही है बसंत। हिन्दू कैलेण्डर के मुताबिक बसंत साल का आदि और अंत दोनों है। यह टेसू और पलाश के फूलों को खिलाते हुए आता है। पीला और गुलाबी रंग दहकता रहता है। ये रंग साहित्य में नायक नायिकाओं को भी उदीप्त करते हैं। आम की मंजरी से बसंत का स्वागत होता है। आम सबसे रसमय फल है। आम्र-मंजरी और उसके पत्ते गांवों में सबसे बड़े श्रृंगार के साधन माने जाते हैं। लोक कल्पना में आम्र-मंजरी सौंदर्य का प्रतीक है। हमारे यहां आम की मंजरी से वर-वधु की मौलि सजाने का भी विधान है। कोई भी पूजा आम के पत्ते के बिना अधूरी है।
पहले फूल, फिर पल्लव। तब भौंरे। फिर कोयल की कूंक। यही बसंत की तार्किक परिणति है। इसका आना मन में उल्लास की सूचना है। बसंत मधुमास है। महुआ फूलता है। उसकी मिठास तेज है। आम्र-मंजरी की गंध राधा को उद्दीप्त करती है कृष्ण को भी। सारा वातावरण फूलों की सुगंध और भौंरों की गूंज से भरा होता है। मधुमख्खियों की टोली पराग से शहद लेती है। सूर्य के कुंभ राशि में प्रवेश करते ही ‘रति काम महोत्सव’ शुरू होता था। इसलिए इस मास को मधुमास भी कहते हैं।
हमारे समाज जीवन में बसंत का क्या महत्व है? ये लोकगीतों से जाना जा सकता है। हमने बसंत की मलिनताओं को होली के रूप में केन्द्रित कर दिया है। उसे वहां जला देते हैं। आयुर्वेद भी बसंत के अनुशासन की बात करता है। वो करे। हमें बसंत के मार्फत जीवन में मस्ती और उल्लास की सीख लेनी चाहिए। उसके मिजाज को पहचानना चाहिए। चित्त और शरीर को साधना चाहिए। तो फिर गाऐं इस अल्हड़ बसंत का गीत। पर संयम के साथ।
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