न जाने क्यों हम अपनी परम्परा और संस्कार भूलते जा रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा ने कुछ सौ करोड़ रुपए क्या कमा " /> न जाने क्यों हम अपनी परम्परा और संस्कार भूलते जा रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा ने कुछ सौ करोड़ रुपए क्या कमा " /> न जाने क्यों हम अपनी परम्परा और संस्कार भूलते जा रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा ने कुछ सौ करोड़ रुपए क्या कमा " />
न जाने क्यों हम अपनी परम्परा और संस्कार भूलते जा रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा ने कुछ सौ करोड़ रुपए क्या कमा लिए। लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया। सब यह भूल गए कि इस देश में दामाद के खातिर कुछ भी कर गुजरने की परम्परा है। दामाद को खुश करने का सिलसिला विवाह के दहेज से शुरु होता है। एक घर का दामाद पूरे गांव का दामाद माना जाता है। उसकी वैसी ही आव-भगत होती है। अब रॉबर्ट वाड्रा की खातिरदारी के लिए भी कांग्रेस सरकार उसी परम्परा का पालन कर रही है। तो इसमें किसी को एतराज क्यों? अगर थोड़े कायदे कानून टूट भी जाएं तो क्या हुआ?
इस देश में हर जमाई को ‘जमाई राजा’ कहते हैं। फिर राजा का जमाई। उसके क्या कहने। वह आसमान में सुराख करें तो भी कोई क्या कर लेगा? उसे तो देश का दामाद माना जाएगा। राष्ट्रीय दामाद। झोंपड़ी तक में रहने वाले लल्लू, कल्लू, पनारू अपने दामाद को ‘कुंवर जी’ ही कहते हैं। फिर यह तो असली कुंवर जी है हुड्डा हों या गहलौत वे अगर उन्हें लाखों का माल कौड़ियों में दें, तो यह दामाद जी का हक है।
हमारे यहां दामाद सिर्फ आदमी नहीं उत्सव है। परम्परा है। दामाद के आते ही घर में रौनक आती है। जिस गरीब को सिर्फ दाल-रोटी मयस्यर है उसके यहां भी दामाद के आने पर खीर-पूरी बनती है। पकवान बनता है।
तभी तो पक्ष हो या विपक्ष दोनों दामाद का ख्याल रखते हैं। जब भाजपा ने रॉबर्ट वाड्रा का मामला उठाया तो दिग्विजय सिंह कहते पाए गए कि हमारे दामाद पर सवाल क्यों उठा रहे हो। क्या कभी हमने आपके दामाद पर सवाल उठाया। बात लाख टके की है। एक दूसरे का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। हमारे समाज में दामादों को कुछ विशेषाधिकार हैं। फिजूल के नखरे दिखाने का। साली से छेड़छाड़ करने का। बात-बात पर मुंह फुलाने का। उपहार और माल लेने का।
भारतीय राजनीति में ‘दामादवाद’ नई परम्परा है। जिसने भाई-भतीजावाद को किनारे कर दिया है। वैसे तो राजनीति में पहले दामाद फिरोज गांधी थे। पर पॉवर पॉलिटिक्स से उनका कोई लेना देना नहीं था। गांधीवादी सादगी पसंद फिरोज आजीवन भ्रष्टाचार से लड़े। सही मायनों में दामादवाद की शुरुआत चंद्रबाबू नायडू से होती है। वही अब फल-फूल रही है। चन्द्रबाबू तो एक कदम आगे बढ़ गए। उन्होंने ससुर की पार्टी हथिया उन्हें ही किनारे कर दिया। शरद पवार के दामाद सदानन्द सुले भी हमेशा विवादों में रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य पर दबे छुपे आरोप लगते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ केजरीवाल के घूम रहे आत्मघाती दस्ते ने इस दफा उन पर सीधा हमला बोला। नेहरू-गांधी परिवार के मौजूदा दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर लगे आरोप गम्भीर हैं। सिर्फ पचास लाख चार साल में पांच सौ करोड़ कैसे हो गए?
ऐसी सांस्कृतिक परम्पराएं देश की सरहद नहीं पहचानती। पाकिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति आसफ अली जरदारी भुट्टो परिवार के दामाद ही तो थे। जब इनकी ख्याति ‘मिस्टर टेन परसेन्ट’ की थी। बेनजीर जब प्रधानमंत्री थी तो कोई काम बिना ‘टेन परसेन्ट’ के नहीं होता था। इसलिए बेनजीर का पहला, दूसरा कार्यकाल भ्रष्टाचार के सवाल पर खासा बदनाम रहा।
दुनिया के पहले दामाद शिव ने नाराज होकर अपने ससुर दक्ष प्रजापति का सिर ही उड़ा दिया। रावण भले दुनिया की नजरों में राक्षस हो। पर अपने ससुर मय के मंदसौर में आज भी उसकी पूजा होती है। उसका वहां बड़ा सम्मान है। मुझे भी दामादगिरी का लुत्फ उठाने का बड़ा शौक था। पर शादी के बाद सास-ससुर जल्दी चले गए इसलिए यह सिलसिला चल नहीं पाया। शादी के वक्त मेरी सास ने किनारे ले जाकर मुझे चुपचाप कुछ दिया। वह कीमती घड़ी थी। जिक्र इसलिए कि दामाद को भेंट देने की परम्परा हर तरफ है। कुछ घर जमाई भी होते हैं। हजरते दामाद जहां लेट गए, लेट गए। भगवान विष्णु घर जमाई थे।
हिन्दी में दामाद के लिए ‘जामाता’ और ‘जमाई’ शब्द है। संस्कृत में ‘जामातृ’ का मतलब पुत्री का पति। संस्कृत का ‘जामातृ’ अवेस्ता में ‘जामातर’ हो जाता है। फारसी में ‘दामाद’ होता है। तुर्की में यह ‘दामातर’ के तौर पर मौजूद है। ग्रीक में इसे ‘जामितर’ कहते हैं। मराठी का जमाई हिन्दी की बोलियों में पहुना, मेहमान, कुवंर साहब, ब्याहीजी, यजमान हो जाता। मजा देखिए दामाद रिश्तेदार बनने के बाद ‘पहुना’ ही कहलाता है। बांग्ला संस्कृति में जमाई का बड़ा जलवा है। वहां तो दामाद के लिए बाकायदा एक ‘जमाई षष्ठी पर्व’ है। ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी को पीपल के पेड़ के नीचे जमाई की लम्बी उम्र के लिए प्रार्थना होती है। जमाई राजा को उपहार मिलते हैं। बॉलीवुड भी दामादों पर मेहरबान रहा। दमाद पर दामाद, जमाई राजा, मेरा दामाद जैसी फिल्में बनी। कथाकार मुंशी प्रेमचंद भी इससे अछूते नहीं रहे। उनकी कहानी ही है ‘घर जमाई’।
फिर राबर्ट वाड्रा पर इतनी हायतौबा क्यों? भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हों या अशोक गहलौत। दामादों को भेंट देना हमारे देश की सामाजिक प्रथा है। उन्हें मिलने वाले लाखों करोड़ों का हिसाब नहीं होना चाहिए। दामाद होते ही इसलिए हैं कि उनकी सेवा की जाए। आखिर दामादवाद ने ही भाई-भतीजावाद को राजनीति से बेदखल किया है। जो काम समाजवादी नहीं कर पाए। लगता है भाई-भतीजावाद का अंत करने के लिए ही दामाद का जन्म हुआ है। अथ श्री दामाद कथा।
Top News
Latest News