पुराने सामानों की सफाई में मुझे एक चिट्ठी मिली। प्रेम पत्र था वह। उसका रंग गुलाबी से पीला पड़ गया था। पर खुशबू बनी हुई थी। मैंने कोई सत्ताइस बरस पहले इसे अपनी पत्नी को लिखा था। वे विश्वविद्यालयी दिन थे। तब वे पत्नी भी नहीं बनी थीं। विवाह के बाद पत्र लिखने का न सामर्थ्य बचता है न शक्ति। भावना और संवेदना जरूर हिलोरे मारती हैं। लेकिन उसमें वह आवेग नहीं होता। फिर सूचना क्रान्ति हुई। एस.एम.एस का युग आ गया। और चिट्ठी जीवन से चली गई। मुझे अब तो यह भी याद नहीं कि आखिरी चिट्ठी मैंने कब और किसको लिखी। लोग अब चिट्ठियां लिखना भी भूल गए हैं। इस तरह एक ताकतवर विधा का वेवक्त अंत हुआ है।
जब से लिपि की खोज हुई है। तभी से चिट्ठियां दो लोगों के बीच संवाद का विश्वसनीय जरिया थीं। ‘संदेशों देवकी से कहियों’ से लेकर ‘मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज न होना’ तक की यात्रा चिट्ठियों की इतिहास यात्रा है। साहित्य के रीतिकाल में तो प्रेम की तमाम अवस्थाओं का वर्णन इन्ही संदेशों के जरिए हुआ है। दुनिया का पहला पत्र 2009 ईसा पूर्व का बेबीलोन के खण्डहरों से मिला था। वह भी प्रेम पत्र था। मिट्टी की पट्टी पर लिखा। प्रेमिका के न मिलने पर प्रेमी ने मिट्टी के फर्श पर ही लिख डाला था। दो लाइन के इस पत्र में विरह की तड़प थी।
समय के साथ इन पत्रों को लाने ले जाने के जरिए भी बदले लेकिन चिट्ठी ताकतवर होती गयी। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक कबूतर के जरिए संदेश भेजे जाते थे। खासकर होमिंग प्रजाति के कबूतरों का इस काम में इस्तेमाल होता था। इस प्रजाति की खासियत थी कि जहां से उड़ते वहीं लौटकर आ जाते थे। इससे संदेश पहुंचने की पुष्टी होती थी। होमिंग सोलह सौ कि.मी. तक बिना रास्ता भटके वापस लौट सकता था। हमारे देश में डाक सेवा व्यवस्थित रुप से 1854 में लार्ड डलहौजी के जमाने में बनी। हालांकि सबसे पहली डाकसेवा ब्रिटेन में शुरु हुई थी।
पत्रों से संवेदनाओं का गहरा रिश्ता रहा है। जब सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में जा रहीं थीं तो उनके साथ गीता, गणेश की प्रतिमा के अलावा उनके पिता के हिन्दी में लिखे पत्र भी थे। दुनिया का राजनैतिक और सामाजिक इतिहास भी पत्रों के बिना अधूरा है। मार्क्स और एंजल्स के बीच ऐतिहासिक दोस्ती की शुरुआत भी पत्रों के जरिए हुई थी। महात्मा गांधी चिट्ठी लिखने में इतने माहिर थे कि वे एक साथ दोनों हाथों से चिट्ठियां लिखते थे। जवाहरलाल नेहरु ने जेल से ही चिट्ठियों के जरिए इन्दिरा गांधी को राजनैतिक ट्रेनिंग दी। ये परम्परा जारी रही। इन्दिरा जी ने राजीव गांधी को दून स्कूल में चिट्ठियां भेज कर देश के सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक परिवेश की जानकारी दी।
अब चिट्ठी लिखी ही नहीं जाती। तो लिफाफा देख मजमून भांपने वाली पूरी जमात का अस्तित्व खतरे में है। सेल फोन और कम्प्यूटर से कुछ भांपा नहीं जा सकता। संचार क्रान्ति से दुनिया तो करीब आ गयी है। पर इसने दिलों की दूरियां बढ़ा दी हैं। पुराने पत्रों के जरिए अतीत में लौटने और भावनाओं में विचरने का आनंद ही कुछ और है।
चिट्ठियों के साथ एक और व्यक्ति हमारे समाज, जीवन से गायब हुआ। वह है डाकिया। आज की कुरियर वाली पीढ़ी तो खाकी वर्दी वाले डाकिए को शायद पहचान भी न पाए। एक जमाना था जब घरों में डाकिए का बेसब्री से इंतजार होता था। उसके लम्बे झोले में हंसने और रोने दोनों के सामान रहते थे। निदा फाजली कहते हैं “सीधा सादा डाकिया जादू करे महान। एक ही थैले में रखे आंसू और मुस्कान।” मेरे मुहल्ले के डाक चचा अब्दुल मुझे चिट्ठियों के साथ ही रोज कुछ न कुछ नयी जानकारी देते थे। उन्होंने ही मुझे बताया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन जीवन की शुरुआत में पोस्टमैन थे।
कालांतर में चिट्ठियों से रस तत्व तो गायब हुआ। पर वो भूमिका बदल वापस लौट आई। इन दिनों चिट्ठियां पोल खोलने का जरिया बन गयी हैं। पोल खोलने की पहली चिट्ठी कमलापति त्रिपाठी ने राजीव गांधी को लिखी थी। त्रिपाठी जी चिट्ठी लिखने के पंडित थे। नाराज राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया। ऑस्ट्रेलिया के जूलियन असांजे ने विकीलीक्स के जरिये दुनियाभर के पत्राचार में सेंध लगा दी। हर किसी की चिट्ठी लीक कर उन्होंने दुनिया में सनसनी फैलाई। वित्त मंत्री रहते प्रणव मुखर्जी की एक चिट्ठी ने चिदंबरम को कटघरे में ला दिया। जिसमें उन्होंने लिखा था की आप चाहते तो स्पेक्ट्रम की नीलामी हो सकती है। कोयला आवंटन में नेताओं की चिट्ठियों ने श्रीप्रकाश जायसवाल की पोल खोल दी। जनरल वी.के. सिंह ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर बम फोड़ा कि सेना के गोला बारूद खत्म हो रहे हैं। अन्ना हजारे की चिट्ठियों ने मनमोहन सिंह की नींद उड़ा दी थी। कपिल सिब्बल को लिखी आचार्य बालकृष्ण कि एक चिट्ठी से बाबा रामदेव के आन्दोलन कि हवा निकल गयी। चिट्ठियों की भूमिका बदल गयी है। इनका इस्तेमाल मूर्तिभंजन के लिए हो रहा है।
प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है। बाकी का वक़्त लिखने के बाद पहुंचाने में लगता था। लोगों में अब इतना धैर्य रहा नहीं। जमाना तुरंता है। एस.एम.एस. और बी.बी.एम पत्रों के लिए चुनौती बन कर आए। भेजते ही ये फौरन 'इनबाक्स' में टन्न से गिरते हैं। ऐसे में पत्रों की अकाल मौत हुई। जब दिल कि बात मुंह तक नहीं आ पायी तो पत्र ही जरिया बनते थे। पर शायद दिल कि जगह आजकल दिमाग से काम चलता है।
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