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Saturday, December 28, 2024
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मैंने उन्हें देखा था

Hemant Sharma

सितार तार-तार हो गया। पंडित रविशंकर परमशक्ति में वैसे ही लीन हो गए, जैसे वे सितार की धुन में लीन होते थे। सुध-बुध खोकर। बनारस से उनका गहरा नाता था। यहीं जन्में, पले, बढ़े। नटराज की गलियों में नृत्य के गुर सीखे। सुरीली ताने सुनी। यह एक दारुण तथ्य है कि पहले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, फिर किशन महाराज और अब पंडित जी। एक-एक कर तीनों चले गए। लगता है काशी से संगीत का नाता ही टूट जाएगा। सितारों से खाली हो गया बनारस। उसका रस छीज रहा है।

 

बनारस के तिलभाण्डेश्वर से लेकर अमेरिका के सेंट डियागो तक की उनकी यात्रा, भारतीय संगीत की जय यात्रा है। रॉक और पॉप की झनझनाती दुनिया में उन्होंने सितार की पहचान वैश्विक संगीत से कराई। उसे इस ऊंचाई पर ले गए जहां सितार और रविशंकर एक दूसरे में समाते हैं। दरअसल धुनों का यह उस्ताद अर्से से देशी और विलायती संगीत के बीच पुल का काम कर रहा था। पर अपनी शर्तों पर। बीटल्स के जार्ज हैरिसन हो या गिटारिस्ट जिमी हैंड्रिक्स या वायलिन वादक यहूदी मेनूहिन। पंडित जी के बनारसी स्वभाव ने किसी को अपने संगीत पर हावी नहीं होने दिया। ‘फ्यूजन’ के बावजूद शास्त्रीय संगीत की पवित्रता और आत्मा बनी रही।

 

पंडित जी ने तो संगीत और सितार को तार दिया। पर हमने पंडित जी को क्या दिया? उनका भारत रत्न उनके साथ चला गया। काशी से उनका अटूट रिश्ता था। पर क्या कोई बनारस जा इस बात की तस्दीक कर सकता हैं कि पंडित जी यहीं के थे? जिस घर में वे जन्में थे, वह गिर गया। अपनी मां हिमागंना के नाम पर जो मकान उन्होंने शिवपुर के तरना में बनाया था वह बिक गया। नए कलाकारों की ट्रेनिंग और रियाज के लिए उन्होंने वहां जो संस्था रविशंकर इंस्टीट्यूट फॉर म्यूजिक एंड परफार्मिंग आर्ट्स ‘रिम्पा’ बनाई थी। वह आर्थिक अभाव में बंद हो गई। प्रधानमंत्री ने उन्हें भारत की सांस्कृतिक विरासत का वैश्विक दूत तो कहा। पर हम क्यों अपने इन वैश्विक नायकों के प्रति इतने क्रूर हैं? सच यही है कि अगर आप बनारस जाए तो आपको पंडित जी की शहर से पहचान कराने वाली एक ईंट भी नहीं मिलेगी।

 

हम चाहें अपनी विरासत पर कितने भी आत्ममुग्ध हों पर साहित्य और संगीत की जड़े पश्चिम में गहरी हैं। वे अपने नायकों की स्मृतियां सहेज कर रखते हैं। पिछले दिनों मैं ऑस्ट्रिया गया था। ऑस्ट्रिया का एक छोटा सा शहर है ‘साल्सवर्ग’। पश्चिम के महान संगीतकार ‘मोजार्ट’ यहीं पैदा हुए थे। मोजार्ट के नाम पर इस शहर का आधे से ज्यादा हिस्सा है। चॉकलेट से लेकर कपड़ों तक उनके नाम की ब्रांडिंग है। मोजार्ट का घर, उसका स्कूल, उसका थियेटर वह ‘स्कैवयर’ जहां बैठ वह संगीत की धुने रचता था। सब उसके नाम हैं। स्टेशन, ट्रेन, गाड़ी हर कहीं मोजार्ट। हम अपने नायकों के प्रति ऐसे कृतज्ञ क्यों नहीं हो पाते?

 

पंडित जी की पहली पत्नी अन्नपूर्णा देवी का नाता भी बनारस से रहा। वह उस्ताद अलाउद्दीन खां की बेटी थी। बाद में पंडित जी का सहजीवन नृत्यांगना कमला शास्त्री से हुआ। इसके बाद एक ही वक्त में अमेरिका में सू जोन्स और भारत में सुकन्या उनके जीवन में आईं। नोरा जोन्स और अनुष्का इन्ही दोनों की बेटी हैं। पंडित जी के इस उदारवादी स्वभाव पर उनके समकालीन चुटकी भी लेते थे। बात सात अप्रैल 1990 की है। पंडित जी की 70वीं सालगिरह थी। दिल्ली में एक भव्य समारोह में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के हाथों उनका अभिनन्दन होना था। खां साहब बनारसी मुंहफट थे। बहुत सोच समझ कर नहीं बोलते थे। खां साहब भावुक हो गए। “पंडित जी ने संगीत की बड़ी सेवा की है। मैं खुदा से दुआ करता हूं मेरी बाकी बची उम्र उन्हें लग जाय।” हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। तभी खां साहब बोले “पर एक बात बताना चाहता हूं। मेरी बाकी बची उम्र अब शादी करने लायक नहीं है।” पंडित जी ने उठकर उस्ताद के हाथ चूम लिए। यह संयोग ही है कि खां साहब पंडित जी से काफी पहले चले गए।

साज से पंडित जी का आध्यात्मिक रिश्ता था। जब वे जहाज से यात्रा करते तो बगल वाली सीट उनके सितार के लिए ‘सुर शंकर’ नाम से बुक होती। रविशंकर और सुर शंकर साथ-साथ। तल्लीनता और एकाग्रता ऐसी की ‘रिम्पा’ के एक कार्यक्रम में मैं उन्हें आगे बैठ कर सुन रहा था। बगल में एक बहन जी संगीत सुनते-सुनते स्वेटर भी बुन रही थी। पंडित जी ने सितार रख दिया। बोले या तो आप की उंगलियां चलेंगी या मेरी। वे भोजपुरी अच्छी बोल लेते थे। क्योंकि उनकी मां गाजीपुर की थी।

 

फारसी के सेह (तीन) से ही सेहतार बना। यों सम्राट विक्रमादित्य के भी दरबार में सितार वादन का उल्लेख मिलता है। इतनी लम्बी परम्परा के बावजूद सितार जाना गया पंडित जी के नाम से। वे संगीत में नए प्रयोगों के हिमायती तो थे ही। ढेर सारे नए राग भी उन्होंने रचे। उनके रागों में खास है, ‘तिलक-श्याम’ जो तिलक कामोद और श्याम कल्याण को मिला रात को गाया जाने वाला राग है। अहीर भैरव और ललित को मिला उन्होंने सबेरे गाया जाने वाला राग ‘अहीर ललित’ बनाया। उनका रचा राग ‘गंगेश्वरी’ देवी दुर्गा को समर्पित राग है। जिसे उन्होंने इलाहाबाद में एक संगीत सम्मेलन के दौरान गंगा के तट पर रचा। महात्मा गांधी की हत्या से दुखी पंडित जी ने राग मोहनकौस बनाया। वे संगीत को शैली, धारा और भोगौलिक सीमा से बाहर ले गए। पंडीत जी पंचमहाभूतों में लौट गए हैं। मैं तो सौभाग्यशाली हूं कि उन्हें देखा, मिला और सामने बैठ कर सुना हूं। आने वाली नस्ले उन्हे कैसे जानेंगी?

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