Saturday, December 28, 2024
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ध्वंस की कालिख

Hemant Sharma

कुछ घटनाऐं कभी भूलती नहीं। छ: दिसम्बर भी ऐसी ही कड़वी याद है। हमारी गंगा जमुना तहजीब पर एक जख्म। इस बहुलतावादी लोकतंत्र के मुंह पर ऐसी कालिख, जो बीस बरस में नहीं धुल पाई। उस रोज अयोध्या में बाबरी ढांचे की शक्ल में हमारे राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्य तोड़े गए थे। नफरत, उन्माद और साम्प्रदायिकता की अफीम के हम ऐसे आदी हुए कि आज तक उससे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। बाबरी ध्वंस के बीस बरस बाद भी क्या हमने उससे कुछ सीखा है?

बीस साल में हम विध्वंस की उस साजिश का पर्दाफाश नहीं कर सके। ढांचा ढहाने के आरोप में किसी एक कारसेवक को सजा नहीं दे पाए। सीबीआई की जांच भी फेल हुई। अब तक यही नहीं तय हो सका है कि इस उन्माद के लिए जिम्मेदार कौन था? ध्वंस की जांच के लिए बने लिब्राहन आयोग ने करोड़ों रुपये फूंक दिए। आयोग ने हजार पेज की रिपोर्ट दी। पर बाबरी ध्वंस के किसी एक अपराधी पर आयोग उंगली नहीं रख सका। कुछ नेताओं पर अब भी रायबरेली की विशेष अदालत में महज गवाहियां दर्ज हो रही हैं।

जो लोग मंदिर बनाने चले थे। वे आजकल प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं। उन्हें भी रामलला याद नहीं हैं। वे यह भूल चुके हैं कि अयोध्या में एक रामलला का मंदिर था। जिसका सिर्फ एक लोकसभा के चुनाव में इस्तेमाल हो गया। मंदिर आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लौह पुरुष का सारा लोहा सत्ता की दौड़ में पिघल गया। छ: दिसम्बर के तथाकथित हीरो कल्याण सिंह दो दफा भाजपा से बाहर हो गए। रामलला आज भी मलबे की शक्ल में पड़े ढांचे पर तने हुए तम्बू में पड़े हैं। मंदिर बनाने वाली जमात ने पहले हमारे संविधान और लोकतंत्र के साथ विश्वासघात किया और फिर रामलला के साथ।

मैंने अयोध्या आंदोलन को बड़े करीब से देखा है। एक फरवरी 1986 को ताला खुलने से लेकर छ: दिसम्बर 1992 के बाबरी ध्वंस की सभी घटनाओं के दौरान अयोध्या में मौजूद रहा हूं। 9 नवम्बर 1989 का शिलान्यास हो या 30 अक्तूबर और 2 नवम्बर 1990 को ढांचा ढहाने की पहली कोशिश पर मुलायम सिंह सरकार का गोली कांड। जिसमें 40 से ज्यादा लोग मारे गए। इन सभी घटनाओं का चश्मदीद रहा। इन्हे रिपोर्ट करने के लिए अयोध्या में मौजूद रहा। इन घटनाओं के पीछे की कथा का भी गवाह रहा।

गए बीस बरस से लगातार यह धारणा बनाने की कोशिश होती रही कि ढांचे का गिरना हिन्दू भावनाओं का विस्फोट था। तत्कालिक गुस्सा था। किसी साजिश या षडयन्त्र का हिस्सा नहीं था। पर यह सच्चाई नहीं थी। दरअसल जैसे आजकल संघ और भाजपा में नेतृत्व को लेकर अनबन है। वैसे ही मंदिर आन्दोलन के तरीके को लेकर दोनों में असहमति थी।

भाजपा नेताओं ने कल्याणसिंह की सरकार को बचाने के लिए केंद्र सरकार से एक सहमति बनाई थी कि कारसेवा प्रतिकात्मक होगी। विवादित ढांचे को सुरक्षित रखा जाएगा। विवादित ढांचे तक कारसेवक जाएगें भी नहीं। आर.एस.एस ने भाजपा के इस समझौते को उसी तरह पंचर कर दिया जैसे लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद से उम्मीदवारी। संघ ने अपनी अयोध्या योजना में भाजपा को भरोसे में नहीं लिया। इसलिए ढांचे पर हमले के वक्त भाजपा नेता सन्न और अवाक् थे। कल्याणसिंह भी बाद में इसी बात पर भड़के थे कि अगर यही करना था तो मुझे बता दिया होता।

पूर्व नियोजित साजिश को समझने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। ताला खोलने से लेकर गांव-गांव शिलापूजन तक का मंदिर आन्दोलन संघ की ओर से विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल चला रहे थे। भाजपा उनका राजनैतिक चेहरा थी। मंदिर निर्माण के सारे कार्यक्रम अयोध्या में संघ के निर्देशन में चलते थे। लेकिन संघ ने आन्दोलन में कभी सीधा हिस्सा नहीं लिया। छ: दिसम्बर पहला ऐसा मौका था जब संघ ने आधिकारिक तौर पर इसमें हिस्सा लिया। संघ के तीन प्रमुख नेता एच.वी.शेषाद्री, के.सी.सुदर्शन और मोरोपंत पिंगले 3 दिसम्बर से ही वहां डेरा डाले हुए थे। आन्दोलन के सारे सूत्र उन्ही के पास थे।

दूसरी तरफ केंद्र सरकार कोई कड़ा फैसला न ले। राज्य की भाजपा सरकार को बर्खास्त न करें इसलिए उसे भुलावे में रखा जाए। विवादित ढांचे को पूरी तरह अर्धसैनिक बलों या सेना के हवाले न होने दिया जाए। इसलिए संघ प्रमुख रज्जू भैया ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव से बातचीत भी जारी रखी थी। 3 दिसम्बर को प्रधानमंत्री नरसिंह राव से उनकी अंतिम बात में इन्हीं तीन मुद्दों पर सहमति बनी। एक- कारसेवा शिलान्यास वाले चबूतरे पर होगी। जो प्रस्तावित मंदिर का सिंह द्वार था। जुलाई 1992 में यहीं कारसेवा हुई थी। जो बाद में कोर्ट के आदेश से रुकी। इस प्रतीकात्मक कारसेवा में कारसेवक उसी चबूतरे पर सिर्फ एक मुट्ठी बालू डालेंगे। दो- ढांचे के आसपास कोई आ जा नहीं सकेगा। तीन- किसी प्रकार की तोड़-फोड़ और हिंसा नहीं होगी। और प्रतीकात्मक कारसेवा कर चुके कारसेवकों को फौरन अयोध्या से बाहर भेजा जायेगा। केंद्र सरकार ने संघ की इस सहमति के बाद ही उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को अभयदान दिया था।

ठीक दो रोज़ बाद 5 दिसम्बर को अयोध्या के कारसेवक पुरम् में संघ कुछ दूसरी ही योजना बना रहा था। 5 दिसम्बर को गीता जयंती थी। द्वापर में इसी रोज महाभारत हुई थी। देशभर से आए संघ के विभाग प्रचारकों और प्रांत प्रचारकों की बैठक थी। इस बैठक में संघ प्रचारकों ने पहली बार माना कि आंदोलन अब उनके हाथ में नहीं रहा। अगर हम प्रतीकात्मक कारसेवा की बात करेंगे तो कोई भी अनहोनी हो सकती है। हो सकता है कारसेवक हिंसक हो जाए।

दो सौ से लेकर दो हज़ार किमी दूर से जिन कारसेवकों को इस नारे के साथ अयोध्या लाया गया है कि एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो। उन्हें तो मंदिर बनाना है। वे क्या जाने समझौता और कपट संधि? हमारी राजनीति से उन्हे क्या लेना-देना?

ढाई लाख कारसेवक अयोध्या में जमा थे। नफरत उन्माद और जूनून से लैस उन्हें जो ट्रेनिंग दी गयी थी या जिस भाषा में उन्हे समझाया गया था। उसके चलते अब पीछे हटने को नहीं कहा जा सकता था।

कारसेवक मानने को तैयार नहीं थे। तो प्रचारकों की इसी बैठक में तय यह हुआ कि कारसेवक समूची अयोध्या को सील करें। बाहर से आने वाली सभी सड़कों पर अवरोध खड़ा कर रास्ते को रोका जाए। ताकि कारसेवा के दौरान फैजाबाद में तैनात अर्धसैनिक बलों को अयोध्या आने से रोका जाए। सड़क पर बड़े-बड़े अवरोध खड़े किए गए। जब ध्वंस शुरू हुआ तो इन अवरोधों में आग लगा दी गई। अब इसे नियोजित साज़िश नहीं तो और क्या कहेगें?

कारसेवा शुरू होनी थी दोपहर सवा बारह बजे। सिर्फ प्रतीकात्मक। पर पौने बारह बजे ही दो अलग-अलग दिशाओं से कारसेवकों ने हल्ला बोल दिया। पथराव शुरू हुआ। संघ का एक गणवेशधारी स्वयंसेवक ढांचे के सामने लगे ‘वाच टावर’ पर चढ़ गया। इस टावर को सुरक्षा बलों ने अपने लिए बनवाया था। यह कारसेवक टावर पर चढ़ सीटी बजाकर और झंडा दिखाकर ध्वंस का निर्देशन करने लगा। फौरन कुछ कारसेवक कूद कर ढांचे पर चढ़ गए। कारसेवक कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। मार्गदर्शक मंडल के सदस्य रामानंदाचार्य रामानुचार्य लगातार कारसेवकों को उसका रहे थे। पहले गुम्बद के गिरने के बाद उन्होंने कहा अभी तो यह झांकी है मथुरा काशी बाकी है। दूसरे सदस्य आचार्य धर्मेन्द्र एलान कर रहे थे कि अभी आप अयोध्या ना छोड़ें। केंद्र सरकार से निपटने के लिए अयोध्या में बने रहना जरूरी है।

अयोध्या में जो हो रहा था उसकी खबर बाहर न पहुंचे। इस इंतजाम में एक अलग टोली लगी थी। अयोध्या कि टेलीफोन लाइनें काट दी गईं। रामजन्मभूमि में बने पुलिस कन्ट्रोल रुम के सभी संचार उपकरण उखाड़ दिए गए। यह सब कुछ ढांचे पर हमले के बीस मिनट के भीतर ही हो गया।
अगर यह पहले से तय शुदा नहीं था तो एक साथ इतने इंतजाम कैसे हो सकते थे? योजना पहले से नहीं बनी थी तो कारसेवक पांच घंटे में ढ़ांचे की एक-एक ईंट कैसे उठा ले गए। ध्वंस के दौरान जो कारसेवक गुम्बद से नीचे गिरकर घायल हो रहे थे उन्हें अस्पताल ले जाने के बन्दोबस्त में अलग एक टोली पहले से लगी थी।

मैं सात घंटे लगातार ढांचे के सामने सीता रसोई में बैठे इस अपकर्म का साक्षी बनता रहा। भयावह दृश्य था। कोई इसके लिए तैयार नहीं था। पूरे माहौल में न भक्ति थी, न श्रद्धा। 46 एकड़ का पूरा इलाका नफरत, उन्माद, विक्षिप्तता और जुनून की गिरफ्त में था। पगलाई भीड़ में निर्माण की जगह विध्वंस की आतुरता थी। समूचा दृश्य दिल दहलाने वाला था। मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर हर कोई अमर्यादित था।

मैंने पुलिस बलों का ऐसा गांधीवादी चेहरा पहली बार देखा। बेबस और अवाक। वे अचंभित थे। सबके मन में एक ही सवाल था यह सब अकस्मात है? या नियोजित? पर माहौल चीख-चीखकर कह रहा था कि कारसेवा के लिए रोज बदलते बयान, झूठे हलफनामे, कपट संधि करती सरकारों के लिए यह सब अकस्मात हो सकता है। पर कारसेवक तो इसी खातिर आए थे। कारसेवकों को वही करने के लिए बुलाया गया था, जो उन्होंने किया। ‘ढांचे पर विजय पाने’ और ‘गुलामी के प्रतीक को मिटाने’ के लिए ही तो वे लाए गए थे। पर मेरा मन इस खौफनाक सच्चाई को मानने को तैयार नहीं था कि कारसेवा के निशाने पर इन लोगों ने ढांचे को ही रखा है।

विवादित इलाके से सटी इमारत थी मानस भवन इसकी छत से पूरा 65 एकड़ का इलाका साफ दिखता था। पत्रकारों को यहीं बिठाने का इंतजाम विश्वहिंदू परिषद् ने किया था। छत पर कोई एक दर्जन विडियो कैमरे लगे थे। ऊपर से पूरा दृश्य केसरिया था। दूर-दूर तक जन सैलाब ही दिख रहा था। पुलिस के साथ ही आर.एस.एस. के गणवेशधारी स्वयंसेवक भीड़ को नियंत्रित करने की व्यवस्था में लगे थे।

ग्यारह बजते-बजते कारसेवकों का सैलाब सारी पाबंदिया नकार बैरिकेटिंग पर दबाव बनाने लगा। मानस भवन की छत पर जहां हम खड़े थे। वहां भी कारसेवकों ने कब्जा जमा लिया। हम नीचे उतर आए। और विवादित ढांचे से कोई पचास गज दूर सीता रसोई की छत पर चले गए यहां पुलिस का कंट्रोल रूम था। इसे मैंने सबसे सुरक्षित जगह माना था पर कारसेवकों का सबसे पहला हमला यहीं हुआ।

हम सीता रसोई की छत पर थे। यहां से दिख रहा था कि विवादित ढांचे के भीतर राम चबूतरे पर पूजा अर्चना चल रही थी। तभी यक-ब-यक हडकंप मचा शेषावतार मंदिर की तरफ से कुछ लोग ढांचे पर पत्थर फेंकने लगे। ढांचे के पीछे की तरफ से भी ऐसा हुआ। देखते-देखते भगदड़ मची। सामने की तरफ से रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद कारसेवक कंटीली बाड़ फांद ढांचे की बाहरी दीवार और गुंबदों पर चढ़ गए। पूरा माहौल बदल गया। सुरक्षा बल जब तक समझते तब तक जमा लाखों कारसेवकों का रुख ढांचे की तरफ हो गया। सरकार अयोध्या में एक बार फिर फेल हो गयी।

सी.आर.पी.एफ. के डीआईजी ओ.पी.एस. मलिक फौरन कूदते-फांदते ढांचे के भीतर पहुंचे। उन्हे रोकने की कोशिश की। विवादित ढांचे के भीतर सी.आर.पी.एफ. तैनात थी। मेरे बगल में खड़े लखनऊ जोन के आई.जी. अशोककांत सरन के चेहरे की हवाइयां उड़ी थी। डी.आई.जी. उनसे पूछ रहे थे क्या करना चाहिए? ओ.पी.एस. मलिक भारत सरकार के डी.जी. नारकोटिक्स और सरन उत्तराखंड सरकार के डी.जी.पी. पद से रिटायर हो गए हैं। जिलाधिकारी और एस.एस.पी. अलग मौका छोड़ इसी छत की तरफ आ रहे थे। रामकथा कुंज से लालकृष्ण आडवाणी की कारसेवकों से लौट आने की अपील लगातार प्रसारित हो रही थी। कारसेवकों के ढांचे में घुसने के पंद्रह मिनट के भीतर ही सी.आर.पी.एफ. और पी.ए.सी. के जवान मौका छोड़ ढांचे से वापस लौट आए। यानी बारह बजे तक ढांचा पूरी तरह कारसेवकों के हवाले था। कारसेवकों ने घुसते ही ढांचे के भीतर की हॉटलाइन काटी। फिर तोड़ी गयी बैरिकेटिंग के लोहे की पाइप से गुंबदों पर हमला बोला गया। ऊपर गुंबदों पर होनेवाले प्रहार से चिनगारियां फूट रही थी। नीचे कारसेवकों के आक्रोश की चिंगारियों का सामना पत्रकार और फोटोग्राफर कर रहे थे।

मानस भवन की छत पर पत्रकारों की पिटाई शुरू हो चुकी थी। दोपहर एक बजे तक ढांचे की बाहरी दीवार ढहाई जा चुकी थी। जिला प्रशासन ने 50 कंपनी अर्धसैनिक बलों की मांग की। वे फैजाबाद से चली भी पर अयोध्या की सीमा पर कारसेवकों ने रूकावट खड़ी कर उसे रोक दिया। तीन बजे पुलिस कंट्रोलरूम को मुख्यमंत्री कल्याणसिंह का संदेश मिला कारसेवकों पर गोली नहीं चलेगी। गोली के अलावा उनसे निपटने के इंतजाम हों। इससे अर्धसैनिक बलों में दुविधा फैल गयी। सुरक्षाबल निष्क्रिय हो गए। कारसेवकों और पुलिस का रिश्ता बदल गया। शुरू में तो पुलिस पर पथराव हुआ पर बाद में पुलिस का रवैया अहिंसक देख पूरी कारसेवा तक पुलिस और कारसेवकों के रिश्तें मित्रवत रहे। 4 बजकर 50 मिनट पर आखरी गुंबद गिरा जिसे विहिप गर्भगृह कहती थी। इसी गर्भगृह में 43 साल से रामलला विराजमान थे।

पूरी रात केंद्र सरकार की संभावित कार्यवाही की सुगबुगाहट के बीच गर्भगृह पर एक चबूतरा बना रामलला को फिर से स्थापित कर दिया गया। रातों-रात यहां तक पहुंचने के लिए अठारह सीढियां भी बनायी गयी। पंद्रह गुणे पंद्रह फुट के इस चबूतरे पर तीन तरफ से पांच फुट उंची दीवार भी उठा दी गयी।  

यानि ये सब तय था। पूर्वनियोजित था। छ: दिसंबर नफरत और धार्मिक हिंसा के इतिहास से जुड़ गया। जबकि हमारी परंपरा में धार्मिक प्रतिशोध को कभी जीवन मूल्य नहीं माना गया। हमारी जड़े परम्परा में और गहरी हैं। जिसे कोई उन्मादी भीड़ नहीं हिला सकती। भावनाओं का विस्फोट विश्वासघात से नहीं होता। क्या इस विश्वासघात से समूचे हिन्दू समाज कि विश्वसनीयता, वचनबद्धता और जवाबदेही को नुकसान नहीं पहुंचा? यह आत्म निरीक्षण का दिन है।

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